हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-16 मे बताया गया है कि शून्य और शून्य विवाह वाले बच्चों की विरासत के बारे मे बताया गया है कि शून्य विवाह विधि की दृष्टि में विवाह नही माना जाता है, परन्तु विवाह अधिनियम 1955 की धारा-16, से उत्पन्न संतानों वैध घोषित करती है । अतः हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा-16 उन प्रकार की संतानों के हितों की रक्षा करती है, जो धारा-11 और 12 के अन्तर्गत शून्य एवंम् शून्यकरणीय विवाहों की अज्ञप्ति प्राप्त करने के पूर्व उत्पन्न हुये अथवा गर्भ मे आये ।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-16 मे अपेक्षित संसोधन करने के पूर्व विघमान अनियमितता को समाप्त कर दिया गया है । अब न्यायालय से अकृतता की आज्ञप्ति ली जाय अथवा न ली जाये, उससे उत्पन्न संतानें धर्मज मानी जायेंगी । जहां धारा-12 के अधीन शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध मे अकृतता की डिक्री मंजूर की जाती है, वहां डिक्री से पूर्व उत्पन्न हुयी अथवा गर्भ मे आई हुयी संतान, यदि विवाह डिक्री की तारीख को अकृत किये जाने के बजाय विघटित किया गया होता तो विवाह के पक्षकारों की धर्मज संन्तान होती, अकृतता की डिक्री के बावजूद उनकी धर्मज संन्तान मानी जायेगीं ।
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा-11 एवंम् 12 से जन्म लेने वाली संन्तानें अथवा गर्भ मे आये हुयी संन्ताने धारा-16 के अनुसार वैध घोषित करती है इस प्रकार की वैधता प्राप्त संन्तानो के दाय अधिकारों को धारा-16 के अन्तर्गत संकुचित कर दिया गया है, इस प्रकार की संन्ताने दाय अधिकार के सम्बन्ध मे संकुचित वैधता प्राप्त की हुयी, धर्मज संन्तानें मानी जायेगी, अर्थात् उन्हे अपने माता-पिता के अतिरिक्त अन्य किसी भी संम्पत्ति मे किसी प्रकार का अधिकार नही प्राप्त होगा ।